शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

साया....

लो शाम भी फिसल रही है दिन के हाथ से
साये भी घुस गए हैं दरख्तों के जिस्म में..

ढँक जाएगी जमीन भी अपने ही साये से,
मेरे भी जिस्म में कोई साया है इन दिनों

साया, जो मेरी रूह को बेचैन किये है..
कब से खड़ा हूँ मैं इसी साये की धूप में...

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बेहतरीन!!

Dankiya ने कहा…

dua hai..aapki!!