सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

निर्जला...

`पूरा दिन यूंही  गुज़ारा था निर्जला तुमने...
हंसके डिब्बे में रखी थी परमल...फेवरेट थी मेरी
मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग,
तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...
औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से....
और फिर रात को पीले मकान की छत पर...
चाँद दो घंटे लेट था शायद..
चांदनी छानकर पिलाई थी...
पूरा दिन यूंही  गुज़ारा था निर्जला तुमने...
आज भी रक्खा है वो दिन...मेरे सिरहाने कहीं...

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

उठो...

उठो छोडो ये काली नींद का सूखा गरम बिस्तर
तुम्हारे सामने सारी उम्र मुंह बाये बैठी है..
उठो के वक़्त का फेरा तुम्हे ताने ना दे पाए,
उठो कितने ही रस्तों पर तुम्हारे पाँव पड़ने हैं, 
उठो अब भी तुम्हारी राह में बैठी है एक मंजिल,
उठो तुमको ही धोनी है लहू से तरबतर धरती,
उठो तुमको हो दुनिया में नए इन्सां बनाने हैं,
गिरा दो चाँद धरती पर, उठा लो हाथ में सूरज,
सितारे दिन में दिखला दो,उठालो हाथ में सूरज 
उठो आगे बढ़ो तुमको ही गिरतों को उठाना है,
उठो बिगड़ी हुयी हर चीज़ तुमको ही बनाना है,
उठो.. ताज़ा सुनहरी दिन तुम्हारी राह ताकता है....

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

बस स्टॉप

वो जो बस स्टॉप था न कोलेज का...
वो जहाँ टेम्पो रुका करते थे..
आजकल हो गया है वो एलीट
अब तौ स्टार बस ही रूकती है..
वो जो बस स्टॉप था न कोलेज का...
वक़्त अब भी वहां ठहरता है..
और वहीँ से चढ़ता है...
उधर से जब भी गुज़रता हूँ तौ ये लगता है...
जेसे के आखरी बस छूट गयी हो मेरी...


 

 


 

 

दिए नहीं जलते... अब ना ही शाम ही ढलती है...
दस बाई दस के कमरे में उम्मीद सी पलती है...
देर रात घर आता, .पर घर पहुँच नहीं पाता
बच्चों की आँखों में खिलौने की
जिद मचलती है...
दिए नहीं जलते...
अब ना ही शाम ही ढलती है...

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

राम ये कैसा रावण मारा था तुमने....

राम ये कैसा रावण मारा था तुमने....
मरता नहीं.. हर बार मारना पड़ता है....
अबके कोई `राम, बनाओ ना....


रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सनसेट...

रात बेटे  ने अचानक पूछा.. क्यूँ पापा...
ये जो सन है वो कहाँ जाता है...
मैंने बस यूं ही कहा...सोने ही जाता है कहीं...
बड़े तपाक से बोला...` नहीं.. नहीं पापा, ...
छुपके रोता है, छत पे रात जब भी आती है...
मेरे जेसे ही अँधेरे में वो भी डरता है....
`पापा सूरज को भी एक नाईट बल्ब दे दो न..??