के जिस्म ताप रहा है कायनात का सारा
ज़मीं दरख़्त सभी दर्द से तडपते हैं
पहाड़ सुस्त,हवा चुप है.. दिन परेशां है
शाम बढ़ते ही ज़रा आसमां की पेशानी
लाल होती है और तपती है...
कोई माथे पे उसके रख आये...
गीली ठंडी सी अब्र की पट्टी
या कोई सर्द बारिश फाहा...
2 टिप्पणियां:
गहन रचना...
dhanywad sameer ji...
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