लो शाम भी फिसल रही है दिन के हाथ से
साये भी घुस गए हैं दरख्तों के जिस्म में..
ढँक जाएगी जमीन भी अपने ही साये से,
मेरे भी जिस्म में कोई साया है इन दिनों
साया, जो मेरी रूह को बेचैन किये है..
कब से खड़ा हूँ मैं इसी साये की धूप में...
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
बारिश
गुरुवार, 22 जुलाई 2010
गोदान
सुबह का चरवाहा सूरज फिर
किरण-किरण चौपाये लेकर
शाम ढले घर लौट रहा है,
हाथ में लेकर धूप की लाठी
ऊंचे टीले पर बैठा है
दूर कहीं तनहा छप्पर में
टीम-टीम करता लालटेन एक
गहरी नींद से जाग रहा है...
प्रेमचंद के धनिया-होरी
रीत रिवाजों के चूल्हे में हक के कंडे झोंक रहे हैं
बूढा और बीमार हाईवे नयी नवेली पगडण्डी से
घर का रस्ता पूछ रहा है................
सुबह का चरवाहा सूरज फिर
ओढ़ के रात का काला कम्बल
कल के सपने पीस रहा है
किरण किरण चौपाये लेकर सूरज फिर गोदान करेगा....
किरण-किरण चौपाये लेकर
शाम ढले घर लौट रहा है,
हाथ में लेकर धूप की लाठी
ऊंचे टीले पर बैठा है
दूर कहीं तनहा छप्पर में
टीम-टीम करता लालटेन एक
गहरी नींद से जाग रहा है...
प्रेमचंद के धनिया-होरी
रीत रिवाजों के चूल्हे में हक के कंडे झोंक रहे हैं
बूढा और बीमार हाईवे नयी नवेली पगडण्डी से
घर का रस्ता पूछ रहा है................
सुबह का चरवाहा सूरज फिर
ओढ़ के रात का काला कम्बल
कल के सपने पीस रहा है
किरण किरण चौपाये लेकर सूरज फिर गोदान करेगा....
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
रिहाई..
मंगलवार, 13 जुलाई 2010
सजा..
भयानक ख्वाब से डरकर उठा हूँ रात के घर में
हकीकत दर्द बनकर फिर मेरे ख्वाबों में आई है
छुड़ाकर नींद की ज़ंजीर उठकर बैठ जाता हूँ
निकलकर आँख मेरी फिर उनींदे से झरोखे से
गुज़रती ट्रेन की सीटी की आवाजें पकडती है..
अजब सा ख्वाब था एकदम नहीं कुछ याद तौ लेकिन
किसी एक जुर्म की मुझको मिली है ये सजा जिसमें
मुझे कुछ हसरतें कुछ ख्वाब लेकर फिर से जीना है..
हकीकत दर्द बनकर फिर मेरे ख्वाबों में आई है
छुड़ाकर नींद की ज़ंजीर उठकर बैठ जाता हूँ
निकलकर आँख मेरी फिर उनींदे से झरोखे से
गुज़रती ट्रेन की सीटी की आवाजें पकडती है..
अजब सा ख्वाब था एकदम नहीं कुछ याद तौ लेकिन
किसी एक जुर्म की मुझको मिली है ये सजा जिसमें
मुझे कुछ हसरतें कुछ ख्वाब लेकर फिर से जीना है..
सोमवार, 12 जुलाई 2010
बुखार...
शुक्रवार, 9 जुलाई 2010
सपने
गुरुवार, 8 जुलाई 2010
बारिश
सुबह से यूं हीं बरस रहा है रात का बादल
दामन पत्तों का पेड़ों से भर आया है....
रात का साया खिड़की में से झाँक रहा है
बिस्तर में कुछ सीले लम्हे पड़े हुए हैं..
छत ने सर पर उठा लिया रो-रोकर घर को...
दीवारों का जिस्म भी सारा भीग गया है,
वक़्त सुबह से छतरी लेकर निकल पड़ा है....
मौसम के दस्तूर में बस्ती डूब गयी है..
राशन के पीपों ने भी दम तोड़ दिया है
छप्पर में भूखे चूल्हे की लाश पड़ी है...
सुबह से यूं ही बरस रहा है रात का बदल...
सुबह से यूं ही भूके बच्चे बिलख रहे हैं....
दामन पत्तों का पेड़ों से भर आया है....
रात का साया खिड़की में से झाँक रहा है
बिस्तर में कुछ सीले लम्हे पड़े हुए हैं..
छत ने सर पर उठा लिया रो-रोकर घर को...
दीवारों का जिस्म भी सारा भीग गया है,
वक़्त सुबह से छतरी लेकर निकल पड़ा है....
मौसम के दस्तूर में बस्ती डूब गयी है..
राशन के पीपों ने भी दम तोड़ दिया है
छप्पर में भूखे चूल्हे की लाश पड़ी है...
सुबह से यूं ही बरस रहा है रात का बदल...
सुबह से यूं ही भूके बच्चे बिलख रहे हैं....
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
एक और दिन रख आया हूँ...
एक और दिन रख आया हूँ...तह करके अलमारी में...
बासी-बासी और अनमना,थका-थका आराम से शायद,
पोस्टमन के इंतज़ार सा, आँगन की खाली कुर्सियों सा
और बेजान सा दिन...
चाह में सूरज को छूने की, दौड़ता भागता दिन...
दिन पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा,
रिश्तों में नातों में उलझा, अपना-अपना दिन......
पिछली रात जो उठकर मैंने, अलमारी खोली तौ देखा
मेरे दिन के हर खाने में....संबंधों की राख पड़ी थी....
बासी-बासी और अनमना,थका-थका आराम से शायद,
पोस्टमन के इंतज़ार सा, आँगन की खाली कुर्सियों सा
और बेजान सा दिन...
चाह में सूरज को छूने की, दौड़ता भागता दिन...
दिन पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा,
रिश्तों में नातों में उलझा, अपना-अपना दिन......
पिछली रात जो उठकर मैंने, अलमारी खोली तौ देखा
मेरे दिन के हर खाने में....संबंधों की राख पड़ी थी....
रविवार, 4 जुलाई 2010
आसरा...
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