शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

साया....

लो शाम भी फिसल रही है दिन के हाथ से
साये भी घुस गए हैं दरख्तों के जिस्म में..

ढँक जाएगी जमीन भी अपने ही साये से,
मेरे भी जिस्म में कोई साया है इन दिनों

साया, जो मेरी रूह को बेचैन किये है..
कब से खड़ा हूँ मैं इसी साये की धूप में...

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बारिश

आज फिर कत्थई झरोखों से
लहलहाता है  बारिशी मंज़र

हर तरफ मुस्कुराते पेड़ों ने
लाल पीले लिबास पहने हैं

रोज़ रह-रहके एक समंदर सा...
ऊंघती वादियों पे गिरता है

सब्ज़ पत्तों पे रीझता मौसम...
एक ही राग गुनगुनाता है  

ऐलबाती की ठंडी बूंदों में
चन्द यादें टपकती रहती हैं.. 

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

गोदान

सुबह का चरवाहा सूरज फिर
किरण-किरण चौपाये लेकर
शाम ढले घर लौट रहा है,
हाथ में लेकर धूप की लाठी
ऊंचे टीले पर बैठा है
दूर कहीं तनहा छप्पर में
टीम-टीम करता लालटेन एक
गहरी नींद से जाग रहा है...
प्रेमचंद के धनिया-होरी
रीत रिवाजों के चूल्हे में हक के कंडे झोंक रहे हैं
बूढा और बीमार हाईवे नयी नवेली पगडण्डी से
घर का रस्ता पूछ रहा है................
सुबह का चरवाहा सूरज फिर
ओढ़ के रात का काला कम्बल
कल के सपने पीस रहा है
किरण किरण चौपाये लेकर सूरज फिर गोदान करेगा....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रिहाई..

अपने माथे से चू रहा हूँ मैं..
एक इक बूँद पसीने की तरह,

बांस की फांस की तरह `खच, से
अपने सीने में धंस गया हूँ मैं..

और लादे सलीब सांसों की...
चुप हूँ, हैरान हूँ, परेशां हूँ ...

तुम ही आकर के अपने आँचल से..
मेरे माथे से पोंछ लो मुझको,



और मुझको निकाल कर मुझसे
दर्द की क़ैद से रिहा कर दो...

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

सजा..

भयानक ख्वाब से डरकर उठा हूँ रात के घर में
हकीकत दर्द बनकर फिर मेरे ख्वाबों में आई है
छुड़ाकर नींद की ज़ंजीर उठकर बैठ जाता हूँ
निकलकर आँख मेरी फिर उनींदे से झरोखे से
गुज़रती ट्रेन की सीटी की आवाजें पकडती है..

अजब सा ख्वाब था एकदम नहीं कुछ याद तौ लेकिन
किसी एक जुर्म की मुझको मिली है ये सजा जिसमें
मुझे कुछ हसरतें कुछ ख्वाब लेकर फिर से जीना है..

सोमवार, 12 जुलाई 2010

बुखार...

के जिस्म ताप रहा है कायनात का सारा
ज़मीं दरख़्त सभी दर्द से तडपते हैं
पहाड़ सुस्त,हवा चुप है.. दिन परेशां है
शाम बढ़ते ही ज़रा आसमां की पेशानी
लाल होती है और तपती है...
 कोई माथे पे उसके रख आये...

गीली ठंडी सी अब्र की पट्टी
या कोई सर्द बारिश फाहा...

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

सपने

सचमुच कितनी देर हो गयी....
जाने क्या-क्या छूट गया है
आँख खुली तौ सूरज शाम की मुट्ठी में है...
पिछली रात को सपने सारे
दस्तक देकर लौट गए हैं....
और मैं अब तक सपने में हूँ

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

बारिश

सुबह से यूं हीं बरस रहा है रात का बादल 
दामन पत्तों का पेड़ों से भर आया है....
रात का साया खिड़की में से झाँक रहा है
बिस्तर में कुछ सीले लम्हे पड़े हुए हैं..

छत ने सर पर उठा लिया रो-रोकर घर को...
दीवारों का जिस्म भी सारा भीग गया है,
वक़्त सुबह से छतरी लेकर निकल पड़ा है....
मौसम के दस्तूर में बस्ती डूब गयी है..
राशन के पीपों ने भी दम तोड़ दिया है
छप्पर में भूखे चूल्हे की लाश पड़ी है...
सुबह से यूं ही बरस रहा है रात का बदल...
सुबह से यूं ही भूके बच्चे बिलख रहे हैं....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

एक और दिन रख आया हूँ...

एक और दिन रख आया हूँ...तह करके अलमारी में...
बासी-बासी और अनमना,थका-थका आराम से शायद,
पोस्टमन के इंतज़ार सा, आँगन की खाली कुर्सियों सा
और बेजान सा दिन...
चाह में सूरज को छूने की, दौड़ता भागता दिन...

दिन पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा,
रिश्तों में नातों में उलझा, अपना-अपना दिन......
पिछली रात जो उठकर मैंने, अलमारी खोली तौ देखा
मेरे दिन के हर खाने में....संबंधों की राख पड़ी थी....

रविवार, 4 जुलाई 2010

आसरा...

धूप बहुत है तेज़ रास्ता पथरीला
खाली हाथ सफ़र पे निकले हैं हम तुम....
मेंहेगे दामों बिकती है पेड़ों की छांव...
आओ.. हम तुम मिल जुलकर ऐसा करलें...
तुम मेरे साये में आकर दम ले लो
और तुम्हारे साये में सुस्ता लूं मैं....