सोमवार, 28 जून 2010

बारिश...

घर के आँगन से ज़रा दूर वहां, 
खुरदुरी सड़क के करीब
गिरते लहराते पीले पानी में 
नांव कागज़ की छोड़ आये थे 
माँ ने चिल्लाके जब पुकारा था..
नांव की फिक्क्र साथ साथ लिए 
दौड़के घुस गए थे कमरे में 
आज भी बारिशों के मौसम में 
गिरते लहराते पीले पानी से...
नांव कागज़ की वो बुलाती है...
घर के आँगन से ज़रा दूर वहां, 
खुरदुरी सड़क के करीब...

रविवार, 27 जून 2010

अफ़सोस

नाम नहीं कोई पता नहीं है....
कोई भी पहचान नहीं है....
जाने किस एक शख्स ने अपने
सहमें सहमें जज्बातों को,
बंद लिफाफे में रखकर के
मेरे नाम से लिख भेजा है....

काश...के ऐसा कोई लिफाफा 
आज से पंद्रह बरसों पहले,
तुमने मुझको भेजा होता...

शनिवार, 26 जून 2010

किरदार..

बहुत अब हो चुका बासी,तेरी दुनिया का ये नाटक...
तेरे किरदार भी अब एक सी तेहेरीर करते हैं...
बदल अब कुछ कहानी और कुछ तब्दीलियाँ कर दे 
तेरे किरदार अब हर सू बगावत पर उतारू हैं..
कहानी में जिन्हें,एक साथ रहेने की हिदायत थी,
वो एक दूजे के खूँ से प्यास अब अपनी बुझाते हैं 
भुला बैठे हैं सब संवाद किसको बोलना क्या था..
वो खुद ही तोड़ते हैं पाँव से स्टेज के तख्ते 
अगर किरदार हैं तेरे अदाकारी ये किसकी है..
अगर फनकार हैं तेरे तौ फनकारी ये किसकी है..
इन्हें किसने सिखाया तू बता बरबादियों का फन
इन्हें किसने सिखाया छीन कर रोटी को खाना है..
नहीं है तू अगर तौ कौन सी ताक़त है के जिसने 
तेरे हाथों से सारी डोरियाँ कब्जे में ले लीं हैं 
रहेगा देखता कब तक तू अपने फन की बर्बादी 
रहेगा भेजता कब तक यहाँ किरदार शैतानी.....

मंगलवार, 22 जून 2010

एक मुट्ठी रौशनी....

और एक हसरत करूँ के ना करूँ
सिलसिलों की डोर टूटी है कहीं..

ज़हन की वीरानगी जाती नहीं..
धडकनें जज़्बात में डूबी हुयीं

एक मुट्ठी रौशनी के वास्ते
उम्र भर हम रात को धोते रहे...

सोमवार, 21 जून 2010

केमेरा..

न जाने कितने  रंगीं खुशनुमा लम्हों की तस्वीरें
मेरी आँखों के देसी कैमरे ने पल-ब-पल खींचीं
वो यादों के शेहेर के गहमागम  बाज़ार की
सबसे पुरानी वक़्त की दुकाँ पे भेजी थीं
ना जाने वो मेरी तस्वीरें कब तक धुल के आएँगी...

शनिवार, 19 जून 2010

फटकार ..

बहुत बुरा लगा था जब..तुम्हारी पुच्कारने  वाली  ज़बान ने,
पहली बार डांटा था... मुंह में ऊँगली डालने पर..
माँ के दुलार के आगे.. तुम्हारी बात बात की फटकार चुभती थी...
तुम्हारे दफ्तर से लौटने का समय....आजादी छिनने जेसा लगता था....
और वो रिपोर्ट कार्ड वाला तमाचा....अब तक  सबक बनकर गूंजता है यादों में...
थेंक यू ...पापा उन सारी फटकारों के लिए....जिन्होंने मुझे इंसान बना दिया...फ़िर से एक फटकार लगाओ ना... 

गुरुवार, 10 जून 2010

माँ खुशियों की नज़र उतार...

वक़्त पड़ा कबसे बीमार
माँ खुशियों की नज़र उतार

खट्टी चटनी लोंजी गुम
केचप में खो गया अचार


हसरत बनती गयीं ज़रूरत
हर हफ्ते चढ़ गया उधार

पहली को बच्चे मुस्काए
पंद्रह को चुक गयी पगार

शुक्रवार, 4 जून 2010

डाकिया: गुब्बारे....

डाकिया: गुब्बारे....

गुब्बारे....

आधी रात को  नींद खुली थी घबराकर 
छूट गयी थी हाथ से गुब्बारे की डोर,
गुब्बारा जो बूढ़े फेरी वाले से,
दर्जन भर आंसू के बदले पाया था...
मुट्ठी में  जो रात को भींच के सोया था..
छूट के हाथों से छत में जा अटका था..
और फिर आधा दर्जन आंसू के बदले
अम्मा ने डंडे से उसे निकला था..
बाँध दिया था फिर खटिया के पाए से,
आधी रात को नींद खुली है घबराकर,
बरसों बाद ये सोच रहा हूँ हाथों से 
छूट गयी है कितने गुब्बारों की डोर,
गुब्बारे जो बूढ़े वक़्त की फेरी से 
आंसू और सांसों के बदले पाए थे...
गुब्बारे सपनों के और उम्मीदों के...



मंगलवार, 1 जून 2010

ज़मीन....

ना जाने कितनी उड़ाने भरकर...
नर्म हाथों से सख्त पैरों से
खोद डाला है आसमां सारा...
शायद इसमें ज़मीन हो मेरी....