शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

ग्रीटिंग

याद है जब एक साल तुम्हारा ग्रीटिंग मुझे नहीं पहुंचा था...
ग्रीटिंग जिसके भीतर मैं तुमको पढता था...
जिसके एक-एक हर्फ़ से अफ़साने गढ़ता था
बहुत पुरानी बात है वो भी नया साल था.......
कई दिनों तक रक्खी थीं उम्मीद होल्ड पर...
...आज भी बीता बरस सिराने जाता हूँ....
आज भी रूठा हुआ साल, हर साल मनाता हूँ........

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

निर्जला...

`पूरा दिन यूंही  गुज़ारा था निर्जला तुमने...
हंसके डिब्बे में रखी थी परमल...फेवरेट थी मेरी
मैंने ऑफिस में उड़ाई थी पराठों के संग,
तुमने एक दिन में ही जन्मों का सूखा काटा था...
औंधी दोपहरी कहीं टांग दी थी खूँटी से....
और फिर रात को पीले मकान की छत पर...
चाँद दो घंटे लेट था शायद..
चांदनी छानकर पिलाई थी...
पूरा दिन यूंही  गुज़ारा था निर्जला तुमने...
आज भी रक्खा है वो दिन...मेरे सिरहाने कहीं...

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

उठो...

उठो छोडो ये काली नींद का सूखा गरम बिस्तर
तुम्हारे सामने सारी उम्र मुंह बाये बैठी है..
उठो के वक़्त का फेरा तुम्हे ताने ना दे पाए,
उठो कितने ही रस्तों पर तुम्हारे पाँव पड़ने हैं, 
उठो अब भी तुम्हारी राह में बैठी है एक मंजिल,
उठो तुमको ही धोनी है लहू से तरबतर धरती,
उठो तुमको हो दुनिया में नए इन्सां बनाने हैं,
गिरा दो चाँद धरती पर, उठा लो हाथ में सूरज,
सितारे दिन में दिखला दो,उठालो हाथ में सूरज 
उठो आगे बढ़ो तुमको ही गिरतों को उठाना है,
उठो बिगड़ी हुयी हर चीज़ तुमको ही बनाना है,
उठो.. ताज़ा सुनहरी दिन तुम्हारी राह ताकता है....

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

बस स्टॉप

वो जो बस स्टॉप था न कोलेज का...
वो जहाँ टेम्पो रुका करते थे..
आजकल हो गया है वो एलीट
अब तौ स्टार बस ही रूकती है..
वो जो बस स्टॉप था न कोलेज का...
वक़्त अब भी वहां ठहरता है..
और वहीँ से चढ़ता है...
उधर से जब भी गुज़रता हूँ तौ ये लगता है...
जेसे के आखरी बस छूट गयी हो मेरी...


 

 


 

 

दिए नहीं जलते... अब ना ही शाम ही ढलती है...
दस बाई दस के कमरे में उम्मीद सी पलती है...
देर रात घर आता, .पर घर पहुँच नहीं पाता
बच्चों की आँखों में खिलौने की
जिद मचलती है...
दिए नहीं जलते...
अब ना ही शाम ही ढलती है...

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

राम ये कैसा रावण मारा था तुमने....

राम ये कैसा रावण मारा था तुमने....
मरता नहीं.. हर बार मारना पड़ता है....
अबके कोई `राम, बनाओ ना....


रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सनसेट...

रात बेटे  ने अचानक पूछा.. क्यूँ पापा...
ये जो सन है वो कहाँ जाता है...
मैंने बस यूं ही कहा...सोने ही जाता है कहीं...
बड़े तपाक से बोला...` नहीं.. नहीं पापा, ...
छुपके रोता है, छत पे रात जब भी आती है...
मेरे जेसे ही अँधेरे में वो भी डरता है....
`पापा सूरज को भी एक नाईट बल्ब दे दो न..??

शनिवार, 25 सितंबर 2010

धूप....

आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
अपने चेहरे के उजालों की तीलियाँ लेकर
लौट आयीं हैं यहाँ सर्द हवाएं फिर से
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
ताप लें रूह में जमी यादें
सुखा लें आंसुओं की सीलन को..
आओ आ जाओ किसी रोज़ मेरे आँगन में...
धूप सुलगा के बैठ जाएँ हम..
एक रिश्ते की आंच से शायद...
कोई नाराज़ दिन पिघल जाये....

शुक्रवार, 10 सितंबर 2010

गणेश झांकियों की मीठी यादें.....

गणेश झांकियों की मीठी यादें.....
भादो आते ही...बचपन की.बहुत खास भीगी भीगी रातें याद आती हैं...हमारे तरफ की कोलोनीस में...राखी  के बाद से ही गणेश जी की तैयारियां. शुरू हो जाती...चंदे वालों की आवाजाही..और घर वालों की टालमटोल..कल ले लेना, परसों ले लेना......और फिर रसीद कट ही जाती... एक-एक मोहल्ले में तीन-तीन झांकियां...झांकी बनाने में मोहल्ले के कई टेलेंट्स सामने आते..कोई पेंटिंग करता कोई लाइटिंग में उस्तादी दिखाता...फिर रात-रात भर झांकी में पहरेदारों की तरहडयूटी लगती..किसी की प्रसाद वितरण तौ कोई अनुशासन प्रमुख बनकर..दादागिरी दिखाता..ओर्केस्ट्रा,नाटक,अन्ताक्षरी चेअर रेस,मटकी फोड़,के आयोजन..और फिर सबसे बड़ा आकर्षण..
सड़क पर पिक्चर...हम शाम से ही झांकियों में ये जानने निकल  जाते, के आज कहाँ... कौन सी फिल्म दिखाई जाने वाली है....७-८ बजे से शुरू हुआ स्ट्रीट मूवी का सिलिसिला मूंगफली के दानों के साथ देर रात..तक चलता...और रोज़ पिताजी की डांट पर  ख़त्म होता था......

शनिवार, 4 सितंबर 2010

नन्ही मुन्नी एक सुबह को गोद उठाये
घर से उस दिन निकल पड़ा था... बहलाने को...
सारा दिन फिरते-फिरते बहला ना पाया..
शाम ढली तौ गोद से मेरी उतर के उसने
आसमान की थाली से मुट्ठी भर तारे झपट लिए थे...

बुधवार, 1 सितंबर 2010

याद.....

तुम्हारी चुन्नी की कौड़ियाँ
मेरे ख्वाब में खडखड़ा  रही हैं
तुम्हारी आँखों के कुछ सवाल
अब तलक नहीं हल किये हैं मैंने
वो चंद लम्हों की एक जागीर
मैंने दिल में बचा रखी है..
तुम्हारी मौजूदगी का एहसास,
मेरी आँखों में जड़  गया है..
तुम्हारी बातों के और ख़ामोशी के..
कितने मतलब उगा लिए हैं..
सुलग रहा है तुम्हारे हाथों का
लम्स  मेरी हथेलियों में....
वो अजनबी शाम जिसने तुमको
मेरी निगाहों में रख दिया था..
मिली थी रस्ते के मोड़ पे कल...
तुम्हारे बारे में पूछती थी.....

सोमवार, 23 अगस्त 2010

साथ मेरे आज रस्ता चल रहा है,

साथ मेरे आज रस्ता चल रहा है,
कल इन्हीं पैरों तले दल-दल रहा है..

बांध ले फिर से उड़ानें पंख में तू,
फिर तेरा उड़ना किसी को खल रहा है..

लकड़ियाँ  लेने गयी थी माँ ना लौटी..
पेट का चूल्हा तौ कबसे जल रहा है


आज तक वो सीख ना पाया बरसना
जिसकी आंखोंमें कोई बादल  रहा है

गम ना कर होगी यहीं पर एक सुबह भी,
गर तेरा सूरज कहीं पे ढल रहा है..

होंसले चुगते हैं गर मेहनत का दाना
ये समझ लो ख्वाब कोई पल रहा है...

रविवार, 22 अगस्त 2010

याद आयीं बचपन की बातें..........

चूल्हे और आँगन की बातें
याद आयीं बचपन की बातें

तेरा मिलना इस जीवन में,
जेसे दूर गगन की बातें


भल-भल आंसू भेज रहा है,
जो करता दामन की बातें

भूके पेट की प्रहारिक किश्तें,
आँखों से बर्तन की बातें

फिरकी, लट्टू, बन्दर भालू,
सबसे अपनेपन की बातें

आँखों में मेंहदी रच जाये,
हाथों में जब खनकी बातें

जीना मुश्किल हो जायेगा,
मत समझो जीवन की बातें

शनिवार, 14 अगस्त 2010

मुझे आज़ाद कहते हो.....

मैं अब भी बेड़ियों में हूँ,मुझे आज़ाद कहते हो....!!
पढने की है आजादी, हाथों में खिलौने हैं....
मेरे सपनों में आती है तौ बस एक वक़्त की रोटी....
मेरा बचपन भटकता है,कहीं गलियों में सड़कों पे
मुझे आज़ाद कहते हो.....
कहीं है होटलों में ज़िन्दगी टेबल से टेबल की
कहीं कचरे के डिब्बों में,उतरता,बीनता खुशियाँ
मेरी हर एक तमन्ना क़ैद है  मेरी ही आँखों में
मुझे आज़ाद कहते हो.....

सोमवार, 9 अगस्त 2010

तमन्ना

बेखबर इस बात से सब,कौन सा रास्ता है किसका
बस चले जाते हैं थामे,हाथ में हसरत की झोली

छोड़ देने की ख़ुशी का है नहीं एहसास शायद
इसलिए ख्वाहिश, तमन्ना दर-ब- दर भटका रही है...

दिन फिसलता जा रहा है,मुट्ठियों से रेत जेसा
रात की कालिख निकलकर, आंसुओं में बह गयी है..
जाने कब से हम भी पत्थर की कतारों में खड़े हैं.....

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

ज़िन्दगी...

वक़्त बिगड़े हुए हालात बदल ही देता
कुछ एक ख्वाब को ताबीर मिल गयी होती...
दर्द उठ-उठके बिखर जाता रास्तों में कहीं
फासले बढ़के कोई सिलसिला बना देते,
अश्क आँखों के कोई फूल खिला ही देते
सख्त राहों से ही निकल आती,
नर्म पगडण्डी कोई खुशियों की
दिल के टूटे हुए टुकड़ों से कही
कोई तखलीक हो गयी होती....
तुम जो घबराके और झुंझलाके
राह काँटों की छोड़ आये हो...
ये राह ज़िन्दगी से मिलती है....

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

साया....

लो शाम भी फिसल रही है दिन के हाथ से
साये भी घुस गए हैं दरख्तों के जिस्म में..

ढँक जाएगी जमीन भी अपने ही साये से,
मेरे भी जिस्म में कोई साया है इन दिनों

साया, जो मेरी रूह को बेचैन किये है..
कब से खड़ा हूँ मैं इसी साये की धूप में...

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

बारिश

आज फिर कत्थई झरोखों से
लहलहाता है  बारिशी मंज़र

हर तरफ मुस्कुराते पेड़ों ने
लाल पीले लिबास पहने हैं

रोज़ रह-रहके एक समंदर सा...
ऊंघती वादियों पे गिरता है

सब्ज़ पत्तों पे रीझता मौसम...
एक ही राग गुनगुनाता है  

ऐलबाती की ठंडी बूंदों में
चन्द यादें टपकती रहती हैं.. 

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

गोदान

सुबह का चरवाहा सूरज फिर
किरण-किरण चौपाये लेकर
शाम ढले घर लौट रहा है,
हाथ में लेकर धूप की लाठी
ऊंचे टीले पर बैठा है
दूर कहीं तनहा छप्पर में
टीम-टीम करता लालटेन एक
गहरी नींद से जाग रहा है...
प्रेमचंद के धनिया-होरी
रीत रिवाजों के चूल्हे में हक के कंडे झोंक रहे हैं
बूढा और बीमार हाईवे नयी नवेली पगडण्डी से
घर का रस्ता पूछ रहा है................
सुबह का चरवाहा सूरज फिर
ओढ़ के रात का काला कम्बल
कल के सपने पीस रहा है
किरण किरण चौपाये लेकर सूरज फिर गोदान करेगा....

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

रिहाई..

अपने माथे से चू रहा हूँ मैं..
एक इक बूँद पसीने की तरह,

बांस की फांस की तरह `खच, से
अपने सीने में धंस गया हूँ मैं..

और लादे सलीब सांसों की...
चुप हूँ, हैरान हूँ, परेशां हूँ ...

तुम ही आकर के अपने आँचल से..
मेरे माथे से पोंछ लो मुझको,



और मुझको निकाल कर मुझसे
दर्द की क़ैद से रिहा कर दो...

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

सजा..

भयानक ख्वाब से डरकर उठा हूँ रात के घर में
हकीकत दर्द बनकर फिर मेरे ख्वाबों में आई है
छुड़ाकर नींद की ज़ंजीर उठकर बैठ जाता हूँ
निकलकर आँख मेरी फिर उनींदे से झरोखे से
गुज़रती ट्रेन की सीटी की आवाजें पकडती है..

अजब सा ख्वाब था एकदम नहीं कुछ याद तौ लेकिन
किसी एक जुर्म की मुझको मिली है ये सजा जिसमें
मुझे कुछ हसरतें कुछ ख्वाब लेकर फिर से जीना है..

सोमवार, 12 जुलाई 2010

बुखार...

के जिस्म ताप रहा है कायनात का सारा
ज़मीं दरख़्त सभी दर्द से तडपते हैं
पहाड़ सुस्त,हवा चुप है.. दिन परेशां है
शाम बढ़ते ही ज़रा आसमां की पेशानी
लाल होती है और तपती है...
 कोई माथे पे उसके रख आये...

गीली ठंडी सी अब्र की पट्टी
या कोई सर्द बारिश फाहा...

शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

सपने

सचमुच कितनी देर हो गयी....
जाने क्या-क्या छूट गया है
आँख खुली तौ सूरज शाम की मुट्ठी में है...
पिछली रात को सपने सारे
दस्तक देकर लौट गए हैं....
और मैं अब तक सपने में हूँ

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

बारिश

सुबह से यूं हीं बरस रहा है रात का बादल 
दामन पत्तों का पेड़ों से भर आया है....
रात का साया खिड़की में से झाँक रहा है
बिस्तर में कुछ सीले लम्हे पड़े हुए हैं..

छत ने सर पर उठा लिया रो-रोकर घर को...
दीवारों का जिस्म भी सारा भीग गया है,
वक़्त सुबह से छतरी लेकर निकल पड़ा है....
मौसम के दस्तूर में बस्ती डूब गयी है..
राशन के पीपों ने भी दम तोड़ दिया है
छप्पर में भूखे चूल्हे की लाश पड़ी है...
सुबह से यूं ही बरस रहा है रात का बदल...
सुबह से यूं ही भूके बच्चे बिलख रहे हैं....

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

एक और दिन रख आया हूँ...

एक और दिन रख आया हूँ...तह करके अलमारी में...
बासी-बासी और अनमना,थका-थका आराम से शायद,
पोस्टमन के इंतज़ार सा, आँगन की खाली कुर्सियों सा
और बेजान सा दिन...
चाह में सूरज को छूने की, दौड़ता भागता दिन...

दिन पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा,
रिश्तों में नातों में उलझा, अपना-अपना दिन......
पिछली रात जो उठकर मैंने, अलमारी खोली तौ देखा
मेरे दिन के हर खाने में....संबंधों की राख पड़ी थी....

रविवार, 4 जुलाई 2010

आसरा...

धूप बहुत है तेज़ रास्ता पथरीला
खाली हाथ सफ़र पे निकले हैं हम तुम....
मेंहेगे दामों बिकती है पेड़ों की छांव...
आओ.. हम तुम मिल जुलकर ऐसा करलें...
तुम मेरे साये में आकर दम ले लो
और तुम्हारे साये में सुस्ता लूं मैं....


 

सोमवार, 28 जून 2010

बारिश...

घर के आँगन से ज़रा दूर वहां, 
खुरदुरी सड़क के करीब
गिरते लहराते पीले पानी में 
नांव कागज़ की छोड़ आये थे 
माँ ने चिल्लाके जब पुकारा था..
नांव की फिक्क्र साथ साथ लिए 
दौड़के घुस गए थे कमरे में 
आज भी बारिशों के मौसम में 
गिरते लहराते पीले पानी से...
नांव कागज़ की वो बुलाती है...
घर के आँगन से ज़रा दूर वहां, 
खुरदुरी सड़क के करीब...

रविवार, 27 जून 2010

अफ़सोस

नाम नहीं कोई पता नहीं है....
कोई भी पहचान नहीं है....
जाने किस एक शख्स ने अपने
सहमें सहमें जज्बातों को,
बंद लिफाफे में रखकर के
मेरे नाम से लिख भेजा है....

काश...के ऐसा कोई लिफाफा 
आज से पंद्रह बरसों पहले,
तुमने मुझको भेजा होता...

शनिवार, 26 जून 2010

किरदार..

बहुत अब हो चुका बासी,तेरी दुनिया का ये नाटक...
तेरे किरदार भी अब एक सी तेहेरीर करते हैं...
बदल अब कुछ कहानी और कुछ तब्दीलियाँ कर दे 
तेरे किरदार अब हर सू बगावत पर उतारू हैं..
कहानी में जिन्हें,एक साथ रहेने की हिदायत थी,
वो एक दूजे के खूँ से प्यास अब अपनी बुझाते हैं 
भुला बैठे हैं सब संवाद किसको बोलना क्या था..
वो खुद ही तोड़ते हैं पाँव से स्टेज के तख्ते 
अगर किरदार हैं तेरे अदाकारी ये किसकी है..
अगर फनकार हैं तेरे तौ फनकारी ये किसकी है..
इन्हें किसने सिखाया तू बता बरबादियों का फन
इन्हें किसने सिखाया छीन कर रोटी को खाना है..
नहीं है तू अगर तौ कौन सी ताक़त है के जिसने 
तेरे हाथों से सारी डोरियाँ कब्जे में ले लीं हैं 
रहेगा देखता कब तक तू अपने फन की बर्बादी 
रहेगा भेजता कब तक यहाँ किरदार शैतानी.....

मंगलवार, 22 जून 2010

एक मुट्ठी रौशनी....

और एक हसरत करूँ के ना करूँ
सिलसिलों की डोर टूटी है कहीं..

ज़हन की वीरानगी जाती नहीं..
धडकनें जज़्बात में डूबी हुयीं

एक मुट्ठी रौशनी के वास्ते
उम्र भर हम रात को धोते रहे...

सोमवार, 21 जून 2010

केमेरा..

न जाने कितने  रंगीं खुशनुमा लम्हों की तस्वीरें
मेरी आँखों के देसी कैमरे ने पल-ब-पल खींचीं
वो यादों के शेहेर के गहमागम  बाज़ार की
सबसे पुरानी वक़्त की दुकाँ पे भेजी थीं
ना जाने वो मेरी तस्वीरें कब तक धुल के आएँगी...

शनिवार, 19 जून 2010

फटकार ..

बहुत बुरा लगा था जब..तुम्हारी पुच्कारने  वाली  ज़बान ने,
पहली बार डांटा था... मुंह में ऊँगली डालने पर..
माँ के दुलार के आगे.. तुम्हारी बात बात की फटकार चुभती थी...
तुम्हारे दफ्तर से लौटने का समय....आजादी छिनने जेसा लगता था....
और वो रिपोर्ट कार्ड वाला तमाचा....अब तक  सबक बनकर गूंजता है यादों में...
थेंक यू ...पापा उन सारी फटकारों के लिए....जिन्होंने मुझे इंसान बना दिया...फ़िर से एक फटकार लगाओ ना... 

गुरुवार, 10 जून 2010

माँ खुशियों की नज़र उतार...

वक़्त पड़ा कबसे बीमार
माँ खुशियों की नज़र उतार

खट्टी चटनी लोंजी गुम
केचप में खो गया अचार


हसरत बनती गयीं ज़रूरत
हर हफ्ते चढ़ गया उधार

पहली को बच्चे मुस्काए
पंद्रह को चुक गयी पगार

शुक्रवार, 4 जून 2010

डाकिया: गुब्बारे....

डाकिया: गुब्बारे....

गुब्बारे....

आधी रात को  नींद खुली थी घबराकर 
छूट गयी थी हाथ से गुब्बारे की डोर,
गुब्बारा जो बूढ़े फेरी वाले से,
दर्जन भर आंसू के बदले पाया था...
मुट्ठी में  जो रात को भींच के सोया था..
छूट के हाथों से छत में जा अटका था..
और फिर आधा दर्जन आंसू के बदले
अम्मा ने डंडे से उसे निकला था..
बाँध दिया था फिर खटिया के पाए से,
आधी रात को नींद खुली है घबराकर,
बरसों बाद ये सोच रहा हूँ हाथों से 
छूट गयी है कितने गुब्बारों की डोर,
गुब्बारे जो बूढ़े वक़्त की फेरी से 
आंसू और सांसों के बदले पाए थे...
गुब्बारे सपनों के और उम्मीदों के...



मंगलवार, 1 जून 2010

ज़मीन....

ना जाने कितनी उड़ाने भरकर...
नर्म हाथों से सख्त पैरों से
खोद डाला है आसमां सारा...
शायद इसमें ज़मीन हो मेरी....

रविवार, 30 मई 2010

गवई सा चाँद....

बहुत आवारा कहीं बादलों की गलियों में...
तपिश ज़मीं की सर्द करने को,
रात घिरते ही उतर आता है...
देखता है ज़मीं को छिप-छिपकर ,
मेरे मुनगे का वो गवई सा चाँद....

शनिवार, 22 मई 2010

वृद्धाश्रम


कोई नानी,कोई दादी,कोई माँ और कोई बापू,
सिले कुछ लोरियों के परवरिश के और कुछ बदले,
समेटे झुर्रियों में वक़्त से बिछुड़े हुए लम्हे,
भरे धुंधलाई आंखन में ये ममता के समंदर को,
ज़ुबां की लडखडाहट में दुआ के फूल से झरते,
ये सब अपने ही घर से आंगनों से बेदखल साये,
ये एक छोटे से घर के ख्वाब की ताबीर के सदके.....

बुधवार, 19 मई 2010

मेरे ख्यालों की फ़्रोक पहने
तुम अरगनी से सुखाये कपडे उठा रही  हो 
मैं दूर फाटक की ओट लेकर
तुम्हें निगाहों से छू रहा हूँ
थके हुए साये शाम के सब
दरी पे आकर पसर गए हैं
तुन्हें ये शायद पता नहीं है...
मैं कितनी सदियों से सूने आँगन
की धूप ओढ़े खड़ा हुआ हूँ
मेरे ख्यालों की फ़्रोक पहने
तुम अरगनी से सुखाये कपडे उठा रही हो...

रविवार, 16 मई 2010

आज फिर चाँद सिरा आया हूँ...

शाम के झुटपुटे से ऊगीं हैं...
आज फिर चाँद हसरतें शायद...
आज फिर से मचलके बच्चे ने..
एडियों से ज़मीन खोदी है....
याद है छोटे-छोटे हाथों ने
अपने पंजों पे जब खड़े होकर,
एक गुलदान तोड़ डाला था...
आज भी पीली फ़्रोक में गुडिया

मेरे हाथों की पहुँच के बाहर 
देखकर मुझको मुस्कुराती है....

.......शाम के झुटपुटे से ऊगीं हैं
आज फिर चाँद हसरतें शायद..

..आज फिर चाँद सिरा आया हूँ...
नीले आकाश के समंदर में....

शनिवार, 8 मई 2010

डाकिया: सुनो माँ...

डाकिया: सुनो माँ...

सुनो माँ...

सुनो माँ....मैं तुम्ही से कह रहा हूँ ,सुन रही हो ना,
सभी ये कह रहे हैं तुम गयी हो छोड़कर मुझको,
मगर तुमको मैं अपने पास ही महसूस करता हूँ
मेरे सर पर अभी तक है वही आंचल दुआओं का
मैं जिसके साये में खुदको सदा महफूज़ पाता हूँ,
मैं जब भी सुबह को देहेरी के बाहर,पाँव रखता हूँ
तुम्हारी फिक्र में डूबी हुयी आवाज़ आती है...
`बहुत सर्दी है बेटा लौटकर जल्दी से घर आना,
मैं अब भी लौटता हूँ,देर से घर में थका हारा,
तुम अब भी जागती आँखों से मेरी राह तकती हो,
घुला है कान में अब तक तुम्हारी लोरियों का गुड
तुम्हारे हाथ का काजल,मेरी आँखों में रौशन है
तुम्हारी जागती आँखों तअले थपकी भ री नींदें,
तुम्हारी गोद का बिस्तर, तुम्हारी बांह का तकिया,
तुम्हारे हाथ का हर एक निवाला याद है मुझको...
सुबह से ताप रहा है जिस्म सारा सर से पावों तक,
मेरे माथे पे रक्खा है तुम्हारे लम्स (स्पर्श ) का फाहा..
सुलगता है अभी भी शाम घिरते ही,मेरे मन के..
 किसी छोटे से कोने में तुम्हारी याद का चूल्हा...
तुम्हारे दर्द में किलकारियां मेरी सुलगती हैं..
मेरी आँखों से बहते हैं तुम्हारी आँख के आंसू
सुनो माँ मैं तुम्ही  से कह रहा हूँ सुन रही हो ना....
बहुत सर्दी है माँ तुम लौटकर जल्दी से घर आना......

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नए सिरे से साल जिया है...

दुनिया के इस कैलेंडर में...
जाने कितनी बार हुआ है
एक पुराना साल गया है..

फिर भी यूं हर बार किया है...
नए सिरे से साल जिया है...