एक और दिन रख आया हूँ...तह करके अलमारी में...
बासी-बासी और अनमना,थका-थका आराम से शायद,
पोस्टमन के इंतज़ार सा, आँगन की खाली कुर्सियों सा
और बेजान सा दिन...
चाह में सूरज को छूने की, दौड़ता भागता दिन...
दिन पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा,
रिश्तों में नातों में उलझा, अपना-अपना दिन......
पिछली रात जो उठकर मैंने, अलमारी खोली तौ देखा
मेरे दिन के हर खाने में....संबंधों की राख पड़ी थी....
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