मंगलवार, 22 जून 2010

एक मुट्ठी रौशनी....

और एक हसरत करूँ के ना करूँ
सिलसिलों की डोर टूटी है कहीं..

ज़हन की वीरानगी जाती नहीं..
धडकनें जज़्बात में डूबी हुयीं

एक मुट्ठी रौशनी के वास्ते
उम्र भर हम रात को धोते रहे...

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

एक मुट्ठी रौशनी के वास्ते
उम्र भर हम रात को धोते रहे...

वाह!

Dankiya ने कहा…

धन्यवाद समीर जी...