छूट गयी थी हाथ से गुब्बारे की डोर,
गुब्बारा जो बूढ़े फेरी वाले से,
दर्जन भर आंसू के बदले पाया था...
मुट्ठी में जो रात को भींच के सोया था..
छूट के हाथों से छत में जा अटका था..
और फिर आधा दर्जन आंसू के बदले
अम्मा ने डंडे से उसे निकला था..
बाँध दिया था फिर खटिया के पाए से,
आधी रात को नींद खुली है घबराकर,
बरसों बाद ये सोच रहा हूँ हाथों से
छूट गयी है कितने गुब्बारों की डोर,
गुब्बारे जो बूढ़े वक़्त की फेरी से
आंसू और सांसों के बदले पाए थे...
गुब्बारे सपनों के और उम्मीदों के...
5 टिप्पणियां:
बहुत गहरी और भावपूर्ण रचना.
dhanywad sameer ji..!!
मन को छू गये आपके भाव।
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रूपसियों सजना संवरना छोड़ दो?
मंत्रो के द्वारा क्या-क्या चीज़ नहीं पैदा की जा सकती?
bahut khub
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई
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