रविवार, 16 मई 2010

आज फिर चाँद सिरा आया हूँ...

शाम के झुटपुटे से ऊगीं हैं...
आज फिर चाँद हसरतें शायद...
आज फिर से मचलके बच्चे ने..
एडियों से ज़मीन खोदी है....
याद है छोटे-छोटे हाथों ने
अपने पंजों पे जब खड़े होकर,
एक गुलदान तोड़ डाला था...
आज भी पीली फ़्रोक में गुडिया

मेरे हाथों की पहुँच के बाहर 
देखकर मुझको मुस्कुराती है....

.......शाम के झुटपुटे से ऊगीं हैं
आज फिर चाँद हसरतें शायद..

..आज फिर चाँद सिरा आया हूँ...
नीले आकाश के समंदर में....

2 टिप्‍पणियां:

दिलीप ने कहा…

are waah badi hi masoom kavita...bjole shabdo me

Dankiya ने कहा…

dhanywad dileep ji