मंगलवार, 1 दिसंबर 2009
शनिवार, 7 नवंबर 2009
जन्म का सूतक.....
बहुत मुश्किल वक़्त था...२६ अक्तूबर २००६...जब मेरा बेटा इस दुनिया में आया..
मूल में पैदा हुआ था टीयूं.... पूरे २७ दिन तक मैं उसे नहीं देख सकता था..
महसूस कर सकता था...सिर्फ आवाज़ से....आज टीयूं ३ साल का हो चूका है...
उन्ही दिनों ये लिखा था...
बहुत मुश्किल वक़्त था...२६ अक्तूबर २००६...जब मेरा बेटा इस दुनिया में आया..
मूल में पैदा हुआ था टीयूं.... पूरे २७ दिन तक मैं उसे नहीं देख सकता था..
महसूस कर सकता था...सिर्फ आवाज़ से....आज टीयूं ३ साल का हो चूका है...
उन्ही दिनों ये लिखा था...
बुझी सी रात रीति-रीति भगोनी दिन की,
और मटमैली सूनी-सूनी शाम की चादर
पाँव तकदीर से दुनिया से झगड़ते लड़ते,
सुबह अख़बार में उम्मीद का कालम कोई..
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..
हाँ! वो लम्हा जो सबकी चाहत है,
हाँ! वो लम्हा जो मेरी राहत है..
हाँ! वो लम्हा जो तपती दोपहर में साया है..
मेरे सपनों का जो सरमाया है..
सूने क्लीनिक की सफेद आसमानी दीवारें..
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..
सांस थमती सी नब्ज़ जमती सी..
खुलते बंद होते वहां ओ.टी. के दरवाज़े पर..
कान हर एक के बस टकटकी लगाये हुए
भीगी आँखों में वो खामोश बड़ा सा वक्फा(अन्तराल)
एक किलकारी ने बदल डाला
फिक्र के आंसुओं को खुशियों में
नन्हे लम्हे की एक किलकारी आँख भर भरके सबने देखि थी
हाथ भर-भरके सुनी थी सबने...
आँखें पाबन्द हो गईं मेरी..ख्वाहिशें बंद हो गईं मेरी..
कोई कहता था मूल हैं शायद...
नन्हे लम्हे पे ग्रहण और ख़ुशी पे सूतक..
नन्हे लम्हे मैं तेरी किलकारी, सुन तौ सकता हूँ..
तुझे देख मैं नहीं सकता...
सबकी आँखों में ढूँढता हूँ मैं..तेरे हाथों को तेरे चहरे को...
तू वो लम्हा जो मेरी मुश्किलों में जाया है..
सूने क्लीनिक की सफेद आसमानी दीवारें...
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..
जिसकी आवाज़ नज़र आती है...आँख रह रहके क्यूँ भर आती है...
रविवार, 18 अक्टूबर 2009
`एक शहर में सुबह की शिनाख्त...
सडी गली और बासी खबरें बाँट रहे हैं...
उधर फलक पे चाँद खडा टेढा मुंह करके,
सूरज की एकमुश्त उधारी चूका रहा है...
मेंन रोड के लैंपपोस्ट ये जुड़वां सारे,
लाल उनींदी आँखें फाड़े सुलग रहे हैं.....
बहुत सवेरे आज उठा तौ देखा मैंने,
घर के बहार खून में लथपथ रात पड़ी थी...
बहुत सवेरे आज उठा तौ देखा मैंने...
आँखें मलते मलते सूरज जाग रहा है..
कैनवास के शूज़ कसाए.....
अपनी अपनी लाठी के संग भाग रहे हैं
अपनी अपनी लाठी के संग भाग रहे हैं
कालौनी के पीले-पीले बंद घरों में,
कचे पक्के ख्वाब टूटने ही वाले हैं..
कचे पक्के ख्वाब टूटने ही वाले हैं..
नन्हे बच्चे कन्धों पर दुनिया को टाँगे...
हंसने वाली बस का रस्ता देख रहे हैं...
कुछ लड़के सर-सर करते दोपहिया थामें,सडी गली और बासी खबरें बाँट रहे हैं...
उधर फलक पे चाँद खडा टेढा मुंह करके,
सूरज की एकमुश्त उधारी चूका रहा है...
मेंन रोड के लैंपपोस्ट ये जुड़वां सारे,
लाल उनींदी आँखें फाड़े सुलग रहे हैं.....
बहुत सवेरे आज उठा तौ देखा मैंने,
घर के बहार खून में लथपथ रात पड़ी थी...
शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2009
मंगलवार, 13 अक्टूबर 2009
रविवार, 11 अक्टूबर 2009
चूल्हे और आंगन की बातें....
चूल्हे और आंगन की बातें !
याद आई बचपन की बातें !!
तेरा मिलना इस जीवन में !
जेसे दूर गगन की बातें !!
जाने केसे सुन लेता हूँ !
इसके उसके मन की बातें !!
भल भल आंसू भेज रहा है!
जो करता दमन की बातें !!
भूके पेट की प्रहरिक किश्तें !
आँखों से बर्तन की बातें !!
फिरकी,लट्टू,बन्दर भालू !
सबसे अपनेपन की बातें !!
आँखों में मेंहदी रच जाये !
हाथों में जब खनकी बातें !!
जीना मुश्किल हो जायेगा !
मत समझो जीवन की बातें !!
चूल्हे और आंगन की बातें !
याद आई बचपन की बातें !!
तेरा मिलना इस जीवन में !
जेसे दूर गगन की बातें !!
जाने केसे सुन लेता हूँ !
इसके उसके मन की बातें !!
भल भल आंसू भेज रहा है!
जो करता दमन की बातें !!
भूके पेट की प्रहरिक किश्तें !
आँखों से बर्तन की बातें !!
फिरकी,लट्टू,बन्दर भालू !
सबसे अपनेपन की बातें !!
आँखों में मेंहदी रच जाये !
हाथों में जब खनकी बातें !!
जीना मुश्किल हो जायेगा !
मत समझो जीवन की बातें !!
...दस का सिक्का
`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...
स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए
बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..
याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...
कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...
कब छोडा था चाँद का पीछा करना..
याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!
कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,
माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..
कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...
बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...
...बसता पटक के भाग गया था खेलने...
नहीं लौटा है अब तक शाम ढलने को है...,!!!
`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...
स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए
बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..
याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...
कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...
कब छोडा था चाँद का पीछा करना..
याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!
कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,
माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..
कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...
बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...
...बसता पटक के भाग गया था खेलने...
नहीं लौटा है अब तक शाम ढलने को है...,!!!
शनिवार, 3 अक्टूबर 2009
एक अरसे बाद इधर अपनी पोस्ट पर आया हूँ
ज़िन्दगी की भागदौड़ से निकलकर॥
आज की चिट्ठी...
`एक और दिन रख आया हूँ
तह करके अलमारी में ...
बासी बासी और अनमना
थका थका आराम से शायद
पोस्टमन के इंतज़ार सा दिन....
आँगन की खली कुर्सियों सा और बेजान सा दिन....
चाहत में सूरज छूने की दौड़ता भागता दिन॥
और सफ़ेद कागज़ पर सरे खींच खींच देता सा अपने बिखरे ख्वाब सा दिन....
दिन... पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा
रिश्तों में नातों में उलझा अपना-अपना दिन...
....पिछली रात जो उठकर मैंने अलमारी खोली तौ देखा,
मेरे दिन के हर खाने में संबंधों की राख पड़ी है...!!!!
ज़िन्दगी की भागदौड़ से निकलकर॥
आज की चिट्ठी...
`एक और दिन रख आया हूँ
तह करके अलमारी में ...
बासी बासी और अनमना
थका थका आराम से शायद
पोस्टमन के इंतज़ार सा दिन....
आँगन की खली कुर्सियों सा और बेजान सा दिन....
चाहत में सूरज छूने की दौड़ता भागता दिन॥
और सफ़ेद कागज़ पर सरे खींच खींच देता सा अपने बिखरे ख्वाब सा दिन....
दिन... पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा
रिश्तों में नातों में उलझा अपना-अपना दिन...
....पिछली रात जो उठकर मैंने अलमारी खोली तौ देखा,
मेरे दिन के हर खाने में संबंधों की राख पड़ी है...!!!!
शनिवार, 21 मार्च 2009
साहिल पर मछुआरे भूके........
साहिल पे मछुआरे भूखे
नदी पड़ी है नाव में...
पानी प्यास बढाता जाए
धुप लगे है छाव में....
गुठले पड़ गए पाँव में
आए जब से तेरे गाँव में....
सदस्यता लें
संदेश (Atom)