शनिवार, 7 नवंबर 2009

जन्म का सूतक.....

बहुत मुश्किल वक़्त था...२६ अक्तूबर  २००६...जब मेरा बेटा इस दुनिया में आया..
मूल में पैदा हुआ था टीयूं.... पूरे २७ दिन तक मैं उसे नहीं देख सकता था..
महसूस कर सकता था...सिर्फ आवाज़ से....आज टीयूं ३ साल का हो चूका है...
उन्ही दिनों ये लिखा था...

`वक़्त के इम्तहान और बड़े होते ज़रूरत के पहाड़..
बुझी सी रात रीति-रीति भगोनी दिन की,
और मटमैली सूनी-सूनी शाम की चादर
पाँव तकदीर से दुनिया से झगड़ते लड़ते, 
सुबह अख़बार में उम्मीद का कालम कोई..
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..

हाँ! वो लम्हा जो सबकी चाहत है,
हाँ! वो लम्हा जो मेरी राहत है..
हाँ! वो लम्हा जो तपती दोपहर में साया है..  
मेरे सपनों का जो सरमाया है..

सूने क्लीनिक  की सफेद आसमानी दीवारें..
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..
सांस थमती सी नब्ज़ जमती सी..
खुलते बंद होते वहां ओ.टी. के दरवाज़े पर..
कान हर एक के बस  टकटकी लगाये हुए
भीगी आँखों में वो खामोश बड़ा सा वक्फा(अन्तराल) 
एक किलकारी ने बदल डाला 
फिक्र के आंसुओं को खुशियों में 
नन्हे लम्हे की एक किलकारी आँख भर भरके सबने देखि थी 
हाथ भर-भरके सुनी थी सबने... 
आँखें पाबन्द हो गईं मेरी..ख्वाहिशें बंद हो गईं मेरी..
कोई कहता था मूल हैं शायद...
नन्हे लम्हे पे ग्रहण और ख़ुशी पे सूतक..
नन्हे लम्हे मैं तेरी किलकारी, सुन तौ सकता हूँ..
तुझे देख मैं नहीं सकता...
सबकी आँखों में ढूँढता हूँ मैं..तेरे हाथों को तेरे चहरे को...
तू वो लम्हा जो मेरी मुश्किलों में जाया है..

सूने क्लीनिक की सफेद आसमानी दीवारें...
और फिर इन्तेज़ार एक नन्हे लम्हे का..
जिसकी आवाज़ नज़र आती है...आँख रह रहके क्यूँ भर आती है...




  

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