शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

एक अरसे बाद इधर अपनी पोस्ट पर आया हूँ
ज़िन्दगी की भागदौड़ से निकलकर॥
आज की चिट्ठी...
`एक और दिन रख आया हूँ
तह करके अलमारी में ...
बासी बासी और अनमना
थका थका आराम से शायद
पोस्टमन के इंतज़ार सा दिन....
आँगन की खली कुर्सियों सा और बेजान सा दिन....
चाहत में सूरज छूने की दौड़ता भागता दिन॥
और सफ़ेद कागज़ पर सरे खींच खींच देता सा अपने बिखरे ख्वाब सा दिन....
दिन... पतझड़ के सूखे पत्तों की झाडन जेसा
रिश्तों में नातों में उलझा अपना-अपना दिन...
....पिछली रात जो उठकर मैंने अलमारी खोली तौ देखा,
मेरे दिन के हर खाने में संबंधों की राख पड़ी है...!!!!

1 टिप्पणी:

पटिये ने कहा…

पिछली रात जो उठकर मैंने अलमारी खोली तौ देखा,
मेरे दिन के हर खाने में संबंधों की राख पड़ी है...!!!! ye dou linen puri nazm per bhari hain...