बुधवार, 20 अक्तूबर 2010


 

 


 

 

दिए नहीं जलते... अब ना ही शाम ही ढलती है...
दस बाई दस के कमरे में उम्मीद सी पलती है...
देर रात घर आता, .पर घर पहुँच नहीं पाता
बच्चों की आँखों में खिलौने की
जिद मचलती है...
दिए नहीं जलते...
अब ना ही शाम ही ढलती है...

1 टिप्पणी:

ME_INSIDE_KUNAL ने कहा…

नमस्कार सुधीर जी..मेरा नाम कुणाल है, मैं इंदौर से हूँ, मैं तो पंखा हो गया जी आपकी कविताओं का.