...दस का सिक्का
`बहुत दिन हुए नहिं देखा दस का सिक्का...
स्कूल के दरवाज़े पर खड़े होकर शांताराम के चने नहीं खाए
बहुत दिन हुए आंगन के चूल्हे पर हाथ तापे..
याद नहीं आखरी बार कब डरे थे अँधेरे से...
कब झूले थे आखरी बार, पेड़ की डाली पर...
कब छोडा था चाँद का पीछा करना..
याद नहीं, कब कह दिया सुनहरी पन्नी वाली चॉकलेट को अलविदा..!!
कहाँ छुट गए कांच की चूडियों के टुकड़े..,
माचिस की डिबिया, चिकने पत्थरों की जागीर..
कब सुना था आखरी बार, स्कूल की घंटी का मीठा सुर...
बहुत दिन हुए नहीं खाई अम्मा की डाट...
...बसता पटक के भाग गया था खेलने...
नहीं लौटा है अब तक शाम ढलने को है...,!!!
6 टिप्पणियां:
waah ..dil ko choo gayi ye kavuta ...ishwar aap ko hamesha masoom aur bhavuk banaye rakhe ..mamau isko pad kar main thoda sa roya hu abhi ....sachi..all d best n god bles u MAMU
dil se mehsoos kiya..shukriya..!! `Bachpan..ke din jab tak Yadon mein rehte hain..humara bachpan bacha rehta hai..aur agar bachpan ko yaad kar thode se bhi ansu gire hain tau..yaqeenan..Door kisi basti mein..koi bachpan gol-gol Rani itta Itta Pani keh kar khel raha hoga...
वाकई जिंदगी की आपाधापी में नौनिहालों का बचपन कहीं खो गया है. इस अच्छी रचना के लिए बधाई.
sarkari school ke shantaram ki yaad dila di sudhir babu...das ke sikke mae aati thi gatagat ki goli...kitna kimti tha wo das ka sikka.....
Dhanyawad virendra ji...!!
Dhool mein khelte bachhe bahut dinon se idhar dikhai nahin dete..wo kehte hain Humari mitti `Hygienic, nahin rahi..!!!
बहुत ही प्यारी..बचपन आखो के सामने दौड गया बस..
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