
कल इन्हीं पैरों तले दल-दल रहा है..
बांध ले फिर से उड़ानें पंख में तू,
फिर तेरा उड़ना किसी को खल रहा है..
लकड़ियाँ लेने गयी थी माँ ना लौटी..
पेट का चूल्हा तौ कबसे जल रहा है
आज तक वो सीख ना पाया बरसना
जिसकी आंखोंमें कोई बादल रहा है
गम ना कर होगी यहीं पर एक सुबह भी,
गर तेरा सूरज कहीं पे ढल रहा है..
होंसले चुगते हैं गर मेहनत का दाना
ये समझ लो ख्वाब कोई पल रहा है...